परमार वंश
परमार वंश के सम्पूर्ण इतिहास की घटनाओं का उल्लेख हिन्दी में
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परमार वंश की स्थापना उपेन्द्रराज ने की थीं। इस वंश की राजधानी धारा नगरी थीं तथा इसकी पुरानी राजधानी उज्जैन थीं। इस वंश के शासकों ने पश्चिम मध्य भारत के मालवा और उसके आस-पास के क्षेत्रों में लगभग 9वीं शताब्दी से लेकर 14वीं शताब्दी तक शासन किया था।
परमार वंश के प्रमुख शासक
शासक | शासनकाल |
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उपेन्द्र कृष्णराज | 9 वीं शताब्दी की शुरुआत में |
वैरीसिम्हा प्रथम | 9 वीं शताब्दी की शुरुआत में |
सियाका प्रथम | 9 वीं शताब्दी के मध्य में |
वाक्पतिराज प्रथम | 9वीं शताब्दी के अंत से 10 शताब्दी के शुरुआत तक |
वैरीसिम्हा द्वितीय | 10 वीं शताब्दी में मध्य में |
सियाका द्वितीय | 940 ईस्वी से 972 ईस्वी तक |
वाक्पतिराज द्वितीय उर्फ मुंजा | 972 ईस्वी से 990 ईस्वी |
सिंधुराज | 990 ईस्वी से लेकर 1010 ईस्वी तक |
राजा भोज | 1010 ईस्वी से लेकर 1055 ईस्वी तक |
जयसिम्हा प्रथम | 1055 ईस्वी से लेकर 1070 ईस्वी तक |
उदयादित्य | 1070 ईस्वी से लेकर 1086 ईस्वी तक |
लक्ष्मदेव | 1086 ईस्वी से लेकर 1094 ईस्वी तक |
नरवर्मन | 1094 ईस्वी से लेकर 1133 ईस्वी तक |
यशोवर्मन | 1133 ईस्वी ईस्वी से लेकर 1142 ईस्वी तक |
जयवर्मन प्रथम | 1142 ईस्वी से लेकर 1143 ईस्वी तक |
बल्लाला’ नामक एक सूदखोर और बाद में सोलंकी राजा कुमारपाल के अधीन | 1143 ईस्वी से लेकर 1175 ईस्वी तक |
विन्ध्यवर्मन | 1175 ईस्वी से लेकर 1194 ईस्वी तक |
सुभातवर्मन | 1194 ईस्वी से लेकर 1209 ईस्वी तक |
अर्जुनवर्मन प्रथम | 1209 ईस्वी से लेकर 1215 ईस्वी तक |
डेवपाला | 1215 ईस्वी से लेकर 1239 ईस्वी तक |
जैतुगिदेव | 1239 ईस्वी से लेकर 1255 ईस्वी तक |
जयवर्मन द्वितीय | 1255 ईस्वी से लेकर 1274 ईस्वी तक |
अर्जुनवर्मन द्वितीय | 1274 ईस्वी से लेकर 1285 ईस्वी तक |
भोज द्वितीय | 1285 ईस्वी से लेकर 1301 ईस्वी तक |
महालकदेव | 1301 ईस्वी से लेकर 1305 ईस्वी तक |
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परमार वंश के शासकों का विवरण
उपेन्द्र कृष्णराज
परमार वंश की नींव उपेन्द्र कृष्णराज ने की थीं इसका शासनकल लगभग 800 ईस्वी से लेकर 813 ईस्वी के मध्य माना जाता हैं। इसकी राजधानी धारा नगरी थीं।
सियाका द्वितीय
इसे हर्ष के नाम से भी जाना जाता हैं। इसका शासनकाल लगभग 948 ईस्वी से लेकर 974 ईस्वी के मध्य माना जाता हैं। इसने राष्ट्रकूट के राजा खोटिगा को नर्मदा नदी के तट पर कालीघाट में हराया था। राष्ट्रकुट वंश की राजधानी मान्यखेत को बर्खास्त करने के लिए इसे जाना जाता हैं।
वाक्पतिराज द्वितीय
वाक्पतिराज द्वितीय को मुंजा और पृथ्वी वल्लभ के नाम से भी जाना जाता हैं। इसका शासनकाल लगभग 972 ईस्वी से लेकर 990 ईस्वी के मध्य माना जाता हैं।
वाक्यपति मुंज के दरबार में धनिक, अमितगति, पद्मगुप्त, हलायुध और धनंजय जैसे महान विद्वान रहते थे। पद्मगुप्त ने नवसाहसाङ्कचरित की रचयिता की थीं और धनंजय ने दशरूपक की रचयिता की थीं।
सिन्धुराजा
सिंधुराजा इस वंश का प्रमुख राजा था। इसका शासनकाल लगभग 990 ईस्वी से लेकर 1010 ईस्वी के मध्य माना जाता हैं। यह वाक्पतिराज का भाई था। इसने तैलप द्वितीय से युद्ध कर खोये हुए प्रदेशों को पुनः प्राप्त कर लिया था। इनके दरबार में पद्मगुप्त रहते थे और पद्मगुप्त ने इनकी जीवनी नव-सहसंका-चरिता लिखी थीं।
राजा भोज
राजा भोज ने पश्चिम में साबरमती नदी से लेकर पूर्व में विदिशा तक तथा उत्तर में चित्तौड़ से लेकर दक्षिण में ऊपरी कोंकण तक शासन किया था। इसका शासनकाल लगभग 1010 ईस्वी से लेकर 1055 ईस्वी के मध्य माना जाता हैं। राजा भोज को परमेश्वर-परम भट्टारका के नाम से भी जाना जाता हैं।
भोजेश्वर मंदिर के निर्माण का श्रेय भोज को साहित्य, कला और विज्ञान के संरक्षक होने के नाते दिया जाता हैं। यह मंदिर मध्य प्रदेश में हैं। धार में भोज शाला स्थित हैं, जो संस्कृत का प्रमुख अध्ययन केंद्र हैं।
साहित्य के विभिन्न अंश राजा भोज ने प्रकाशित किए थे, जिनमें से कुछ निम्नानुसार हैं
- आयुर्वेद संग्रह :- योग सूत्र पर एक प्रमुख भाष्य।
- रसराजा मृगांका :- रसायन शास्त्र (अयस्क) और दवाओं पर एक ग्रंथ।
- समरांगना सूत्रधारा :- सिविल इंजीनियरिंग पर एक ग्रंथ।
- तत्व प्रकाश :- तंत्र पर एक ग्रंथ।
राजा भोज इस वंश का सबसे महान और शक्तिशाली शासक था। भोजपुर नामक झील का निर्माण भोपाल के दक्षिण में राजा भोज ने करवाया था।
श्री हर्ष ने नैषधीयचरित तथा मेरुतुंग ने प्रबन्धचिन्तामणि लिखी थीं।
गणित, व्याकरण और चिकित्सा पर राजा भोज ने अनेक ग्रन्थ लिखें थे। वास्तुशास्त्र के साथ-साथ विविध वैज्ञानिक यंत्रों व उनके प्रयोग का उल्लेख भोजकृत युक्तिकल्पतरु में किया गया हैं।
राजा भोज को कविराज की उपाधि से सम्मानित किया गया था। इसने सरस्वती मंदिर का निर्माण अपनी राजधानी में करवाया था। संस्कृत विद्यालय इसी मंदिर के परिसर में खोला गया था। धारा नगरी इसके शासनकाल में विद्वानों तथा विद्या का प्रमुख केन्द्र थीं। त्रिभुवन नारायण का मंदिर चित्तौड़ में इसी ने करवाया था।
नरवर्मन
लक्ष्मण देव के उत्तराधिकारी के रूप में इसका छोटा भाई नरवर्मन राज सिंहासन पर बैठा था। इसका शासनकाल लगभग 1094 ईस्वी से लेकर 1133 ईस्वी के मध्य माना जाता हैं। नरवर्मन ने कई विभिन्न देवताओं को समर्पित भजन लिखें थे इसलिए इनको कवि होने का श्रेय दिया जाता हैं।
इसने उज्जैन के महाकाल मंदिर के जीर्णोद्धार के बाद उन्होंने महाकाल को समर्पित एक स्त्रोत लिखा था।
महालकदेव
परमार वंश का सबसे महान और अंतिम शासक महालकदेव था। इसका शासनकाल लगभग 1301 ईस्वी से लेकर 1305 ईस्वी के मध्य माना जाता हैं। अलाउद्दीन खिलजी द्वारा 1305 ईस्वी में महालकदेव को पराजित किया गया था। इसके बाद परमार वंश का पतन हो गया।
परमार वंश के पतन के बाद तोमर वंश का शासन था और तोमर वंश के शासन के बाद चाहमान वंश का शासन था अंत में अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति उलुग खाँ और नसरत खाँ ने 1297 ईस्वी में मालवा पर अधिकार कर लिया था।
परमार वंश की सेना
परमार वंश की सेना के पास तीस से चालीस हजार घुड़सवार, कुछ हाथी तथा अनगिनत पैदल सेना थीं। यह वंश हाथियों के लिए प्रसिद्ध था। इस वंश की सेना के पास युद्ध के उपकरण जैसे धनुष और तीर, तलवारें प्रमुख थीं। धनुर्विद्या का अभ्यास राजा भोज ने किया था और ढ़ोल के साथ ढ़ोल बजाया था। इसने भिलसा, धार, मांडू, गौपुरा और उज्जैन शहरों में ओर्टों का निर्माण करवाया था।